भारत-चीन युद्ध के 58 वर्ष पूरे – जानिए, नेहरू और मोदी दोनों के चीन से निपटने के तरीके में क्या है अंतर

 

ये नया भारत है, ईंट का जवाब पत्थर से देना जानता है


20 अक्टूबर 1962 की सुबह जब अरुणाचल प्रदेश के नामका चू क्षेत्र में तैनात राजपूत रेजीमेंट के जवान अपनी ड्यूटी के लिए तैनात हुए थे, तो उन्हे आभास भी नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। सुबह 5:14 बजे चीन की पीएलए सेना ने अचानक से धावा बोल दिया। उनके पास टैंक से लेकर मोर्टार, अत्याधुनिक शस्त्र समेत हर सुविधा उपलब्ध थी। देखते ही देखते नामका चू का दक्षिणी छोर पूरी तरह चीन के कब्जे में आ गया। कई भारतीय जवानों को सोते हुए ही पीएलए के सैनिकों ने मौत के घाट उतार दिया। इस त्रासदी ने 1962 के उस भारत चीन युद्ध का आरंभ किया, जिसमें भारत को अंत में पराजय का मुंह देखना पड़ा।


आज इस अनचाहे युद्ध को 58 वर्ष पूरे हुए हैं, लेकिन तब से अब तक ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका है। अब का भारत 1962 जैसा बिलकुल नहीं, जिसे आवश्यक शस्त्रों और उपकरणों के अभाव में शत्रु के समक्ष घुटने टेकने पड़े। यह वो भारत नहीं जिसपर निरंतर हमले होते रहे, और तब भी भारत शांति का पाठ पढ़ाता रहे। अब यह वो भारत है, जो शान्तिप्रिय अवश्य है, लेकिन अपने आत्मसम्मान पर जब हमला हो, तो वह शत्रु को न केवल एक करारा सबक सिखाये, अपितु उसे उसके घर में घुसकर भी मारे।


1962 के भारत और 2020 के भारत में आकाश पाताल का अंतर है। जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया, तब भारत के शासन की कमान जवाहर लाल नेहरू के हाथों में थी। उन्होंने ऐसे लोगों की नियुक्ति की थी, जो योग्यता के आधार पर नहीं, अपितु चाटुकारिता के आधार पर चुने गए थे, चाहे वह रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन हो, या फिर भारत के तत्कालीन सैन्य प्रमुख प्राण नाथ थापर हो।


जो भी नेहरू की नीतियों का विरोध करता, उसके लिए परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाती, कि उसे इस्तीफा ही देना पड़ता। उदाहरण के लिए प्राण नाथ थापर से पूर्व के सैन्य प्रमुख, जनरल कोडांडेरा सुबैया थिमैया को ही देख लीजिये। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू द्वारा भारतीय सेना के लिए आवश्यक संसाधनों को गलत जगह केन्द्रित किए जाने [एक Mountain Division को सरकारी बंगले बनाने के लिए उपयोग में लिया जाना] का विरोध किया, और उन्होंने यह भी कहा कि चीन के पीएलए की नीतियों को देखते हुए बॉर्डर पर तैनाती को और अधिक सशक्त किया जाना चाहिए। लेकिन उनकी एक न सुनी गई, और अंत में उन्हें 1961 में अपना त्यागपत्र सौंपना पड़ा।


जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो उनके पास हर प्रकार के शस्त्र उपलब्ध थे, जबकि शस्त्रों की उपलब्धता तो दूर की बात, भारतीय सैनिकों के पास युद्धभूमि में कड़ाके की ठंड से बचने के लिए पर्याप्त टेंट और कपड़े भी नहीं थे। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने सैनिकों को वायुसेना की सहायता से भी वंचित रखा। रचना बिष्ट द्वारा लिखित पुस्तक ‘द ब्रेव’ में इस बात का उल्लेख किया गया कि कैसे भारतीय सैनिकों को सीमित संसाधनों में ही युद्ध लड़ने का आदेश दिया गया था। पुस्तक के एक अंश अनुसार, “अगर भारतीय सैनिक के पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी, तो वो सिर्फ एक चीज़ थी – वीरता।”


लेकिन इन सीमित संसाधनों और विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिक ने कई मोर्चों पर चीनियों को नाकों चने चबवा दिये। 23 अक्टूबर को जब टोंगपेन ला पर हमला हुआ, तो सूबेदार जोगिंदर सिंह के नेतृत्व में 1 सिख रेजीमेंट के मात्र 27-28 जवानों ने चीनियों के खेमे में त्राहिमाम मचा दिया। जोगिंदर सिंह एकमात्र सैनिक थे, जिन्हें चीनी सैनिकों द्वारा पकड़ा गया, लेकिन अंतिम सांस तक उन्होंने चीनियों को भारतीय भूमि पर कब्जा नहीं करने दिया।


ऐसे ही 18 नवंबर 1962 को रेजांग ला की रणभूमि में ये सिद्ध हुआ कि वीरता किसे कहते हैं। कुमाऊँ रेजीमेंट के चार्ली कंपनी के मात्र 124 योद्धाओं ने चीनी पीएलए के 2500 से अधिक सैनिकों को दिन में तारे दिखा दिये। हमले में चीनियों द्वारा पकड़े जाने के बावजूद उनके चंगुल से बच निकलने वाले वीर योद्धा, हवलदार निहाल सिंह के अनुसार, “करीब 1300 से अधिक चीनी मारे गए थे। उनकी लाशों से नाला भर गया था। उनकी लाशों को उठाने के लिए कई ट्रक वहाँ आए थे।”


तब से अब में काफी परिवर्तन आ चुका है। अब भारतीय सेना के पास किसी संसाधन की कमी नहीं है, और आवश्यकता पड़ने पर वह चीन को पटक पटक के धो भी सकता था। इसकी नींव तो 1967 में ही पड़ गयी थी, जब चीन द्वारा सिक्किम राज्य पर किए गए हमलों का भारतीय सेना ने मुंहतोड़ जवाब दिया था। चाहे नाथु ला का मोर्चा हो, या फिर चो ला का, दोनों ही जगह भारतीय सेना के जवानों ने चीनियों को इतनी बुरी तरह धोया कि चीन आज भी इस युद्ध के बारे में बात करने से पहले हज़ार बार सोचता है।


लेकिन शायद चीन ने इन युद्धों से कोई सबक नहीं लिया, इसलिए उसने पहले 2017 में डोकलाम पठार के जरिये भारत को चुनौती देने का प्रयास किया, और जब भारत ने चीन को बिना एक चांटा जड़े घुटने टेकने पर विवश कर दिया, तो चीन इस अपमान का बदला लेने के लिए काफी आतुर था। फिर आया 2020, जब चीन द्वारा उत्पन्न वुहान वायरस के कारण पूरी दुनिया कराह रही थी। चीन को इस संकट के समय में अपने साम्राज्यवादी नीतियों को बढ़ावा देने के लिए एक सुनहरा अवसर मिला, और उसने पूर्वी लद्दाख से लेकर दक्षिणी चीन सागर तक हर जगह गुंडई दिखानी शुरू कर दी।


भारतीय सेना ने अपने पोजीशन से कोई समझौता नहीं किया, और इसीलिए वे अपनी जगह डटे रहे। लेकिन चीन को थी अपनी अकड़ दिखाने की ज़िद, और इसीलिए उसने भारत पर गलवान घाटी में घात लगाकर हमला करने की योजना बनाई। लेकिन जब नए भारत ने आतंक का पर्याय पाकिस्तान को कहीं का नहीं छोड़ा, तो भला चीन की क्या बिसात?


2020 के भारत की नीति अब पृथ्वीराज चौहान की आदर्शवादी नीति नहीं, अपितु ललितादित्य मुक्तपीड़ की आक्रामक रक्षा नीति पर आधारित है। गलवान घाटी पर किए गए हमले का भारत ने न केवल मुंहतोड़ जवाब दिया, अपितु चीन को दिन में तारे दिखा दिये। निस्संदेह भारत को 20 जवानों के बलिदान की पीड़ा सहनी पड़ी, लेकिन प्रत्युत्तर में भारत के जवानों ने चीनी खेमे में वो तांडव मचाया कि चीन आज भी अपने मृत सैनिकों की वास्तविक संख्या बताने से कतराता है।


परंतु भारत वहीं पर नहीं रुका। ललितादित्य मुक्तपीड़ मोड एक्टिव कर भारत ने अगस्त में चीनी खेमे में एक बार फिर त्राहिमाम मचाया। चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने की एक और कोशिश नाकाम करते जब पेंगोंग त्सो झील के निकट एलएसी पर 29 अगस्त की रात चीन ने धावा बोला, तो भारतीय सैनिकों ने न केवल इस आक्रमण को ध्वस्त किया, अपितु चीनी सैनिकों को दुम दबाकर भागने पर विवश भी किया।


भारतीयों ने न केवल चीन के आक्रमण को रोका, बल्कि 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक्स की भांति एलएसी पार कर चीन के रातों की नींद उड़ा दी। इंडिया टुडे और एएनआई के रिपोर्ट्स की माने तो भारतीय सेना के स्पेशल फ़्रंटियर फोर्स ने न केवल एलएसी पार कर चीनी सैनिकों की धुलाई की, अपितु रणनीतिक रूप से अहम एक क्षेत्र [जिसे रणनीतिक क्षेत्रों में ‘ब्लैक टॉप’ का नाम दिया गया है] पर स्थित चीनी कैंपों को ध्वस्तकर उसे पुनः भारतीय क्षेत्र में समाहित करा लिया।


ऐसे में अब 2020 का भारत 1962 के भारत से बहुत आगे निकल चुका है। अब इस समय भारत नहीं, बल्कि चीन बैकफुट पर है, क्योंकि भारत की कमान  नेहरू के हाथ में नहीं, बल्कि एक सशक्त और दृढ़ निश्चयी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में है, जिनकी नीति स्पष्ट है – हम किसी को नहीं छेड़ेंगे , पर छेड़ दिया गया तो छोड़ेंगे भी नहीं।

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