अपनी बदले की राजनीति को मराठियों की लड़ाई का नाम न दो शिवसेना
राजनीति में नीचे गिरना एक बात है और नीचता करना दूसरी, और ठाकरे परिवार और उसके चमचे नीचता पर उतारू हैं। अपनी मुगलिया सोच और रवैये के कारण उन्होंने पहले एक महिला को अपशब्द कहे, फिर उसके ऑफिस पर बुलडोजर चलाकर बदले की कार्रवाई की, पर ये हाई कोर्ट से फटकार पड़ने पर भी नहीं सुधरे। यहाँ तक कि औरंगजेब सेना की तरह व्यवहार करते हुए अपने बादशाह उद्धव की आलोचना करने पर नौसेना के एक पूर्व अधिकारी को भी पीट दिया।
अब इसी क्रम में नया कीर्तिमान स्थापित करने के लिए शिवसेना पुनः मराठी बनाम बाहरी की राजनीति पर उतर आई है। सामना में छपे एक लेख में लिखा है “मुंबई के महत्व को कम करने का योजनाबद्ध प्रयास किया जा रहा है; मुंबई की लगातार बदनामी उसी साजिश का हिस्सा है। मुंबई को पाकिस्तान कहनेवाली एक नटी (अभिनेत्री), मुख्यमंत्री को तू-तड़ाक से संबोधित करनेवाला एक समाचार चैनल के संपादक के पीछे कौन है? महाराष्ट्र के भूमिपुत्रों को एक हो जाना चाहिए। ऐसा ये मुश्किल दौर आ गया है।” आगे अपनी बात रखते हुए लेखक अनिल तिवारी लिखते हैं “महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को ग्रहण लगाने का प्रयास एक बार फिर शुरू हो गया है। ये ग्रहण ‘बाहरी’ लोग लगा रहे हैं।”
लेख में मुम्बई और ठाकरे को एक दूसरे का पर्याय बताया गया है। यह बात बाला साहब ठाकरे के संदर्भ में सत्य हो सकती है लेकिन उद्धव ने उन सभी सिद्धांतों की पोटली सोनिया गांधी के चरणों में पहले ही अर्पित कर दी है जिसके बल पर बाला साहब ने यह सम्मान हासिल किय था। लेखक ने आगे मराठी बनाम बाहरी का वही पुराना राग अलापा है जो कभी शिवसेना का मुख्य मुद्दा हुआ करता था।
किंतु वह भूल गए कि उद्धव बाल ठाकरे नहीं हैं, न ही यह 1970-80 का दौर है। तब नौकरियों में मराठियों को मौका नहीं मिलना मुख्य मुद्दा था, लेकिन अब समय बदल गया है। आज की मुंबई का आम मराठी इस राजनीति से दूर है। ऐसे समय में जब वर्षों बाद राष्ट्रवाद अपने चरम पर आया है क्षेत्रवाद की राजनीति शिवसेना को ही भारी पड़ेगी।
शिवसेना की समस्या यही है कि वह जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं। उसे लग रहा है कि आम मराठी इन भावनात्मक अपील के चलते उसके गुंडाराज को स्वीकार कर लेगा। लेकिन ऐसा नहीं है। शिवसेना की राजनीति महाराष्ट्र की छवि को नुकसान पहुँचा रही है और ये बात महाराष्ट्र की जता भी भली भांति समझती है। यही कारण है कि शरद पवार ने भी BMC की कार्रवाई का विरोध किया है।
शरद पवार जमीन से जुड़े नेता हैं। उन्होंने कार्यकर्ताओं के बीच काम करके अपनी पार्टी को मजबूत किया है। पवार ने वैसा परिश्रम किया है जैसा कभी बाला साहब ने शिवसेना के निर्माण में किया था। इसलिए वे जमीनी हकीकत को उद्धव से अधिक समझते हैं। इसके बजाय उद्धव ठाकरे हमेशा अपने पिता की छत्रछाया में रहे हैं। उनको जमीनी राजनीति की पकड़ नहीं है और उनका दुर्भाग्य है कि उनको संजय राउत जैसे सलाहकार मिले हैं।
शिवसेना महाराष्ट्र के मूल स्वभाव के विपरीत काम कर रही है। बाला साहब ठाकरे के समय मराठी मानुष की राजनीति क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति होने के बावजूद राष्ट्रवाद से अभिन्न रूप से जुड़ी थी। किंतु शिवसेना की वर्तमान राजनीति केवल ओछी क्षेत्रीयता की राजनीति है, जिसे किसी भी स्थिति में मराठी लोग स्वीकार नहीं करेंगे। मराठी राष्ट्रीयता पहले राष्ट्र फिर महाराष्ट्र के सिद्धांत को मानती है। आम जनता को भड़ताने के लिए सामना में मराठियों के इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर पेश किया।
लेख में लिखा गया है कि मुम्बई पहले मराठियों की है, क्योंकि इसे मराठियों ने बसाया है। यह ऐतिहासिक रूप से बिल्कुल गलत है। आधुनिक मुम्बई के निर्माण में मराठियों के साथ ही देश के हर कोने से आये लोगों का योगदान है। सर्वप्रथम तो मुम्बई इंग्लैंड के राजा को पुर्तगाल की रानी के साथ विवाह के उपलक्ष्य में मिली थी। पुर्तगालियों से इसका कब्जा लेकर इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया गया। जब औरंगजेब ने गैर मुस्लिम लोगों पर अत्याचार किये तो बड़ी संख्या में गुजराती और पारसी सूरत से भागकर यहाँ आये। उन्होंने यहाँ व्यापार वाणिज्य का विकास किया। भारत के प्रमुख बंदरगाह के रूप में विकास के बाद मुम्बई या बम्बई हर भारतीय के सपनों का शहर था। यह सपना सिर्फ मराठियों का नहीं था, इसमें सभी ने योगदान दिया था।
शिवसेना की सबसे बड़ी गलती यह है कि वह महाराष्ट्र और अपनी पार्टी को एक दूसरे का पर्याय मान रहे हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र में उनके खिलाफ बोलने वाले को महाराष्ट्र के सम्मान के नाम पर पत्रकारों को जेल भेज दिया जाता है। रिपब्लिक भारत के पत्रकार अनुज को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। जहाँ नेवी के पूर्व अधिकारी पर हमला करने वाले शिवसैनिकों को कुछ घंटों में जमानत मिल गई, अनुज को 4 दिनों बाद भी पुलिस ने नहीं छोड़ा। शिवसेना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल रही है। उसका दोहरा मापदंड और खुलेआम संवैधानिक व्यवस्था का मजाक बनाना लगातार जारी है। वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी द्वारा साधुओं की हत्या पर रिपोर्टिंग के कारण उनको पुलिस ने समन कर दिया था। पालघर में साधुओं की मॉब लिंचिंग के बाद उन्होंने सोनिया गांधी को कठघरे में खड़ा कर दिया था, जिसके बाद उनकी एक टिप्पणी को आधार बनाकर शिवसेना और उसके अन्य सहयोगी उनपर महिलाओं का सम्मान न करने का आरोप लगाने लगे थे। वहीं आज संजय राउत पर एक महिला को गाली देने के बाद भी कार्रवाई नहीं कि गई। पालघर मामले में भी महाराष्ट्र सरकार लीपापोती कर रही है। यही कारण है कि साधुओं को न्याय दिलाने के लिए CBI जांच की मांग उठ रही है।
यदि ऐसा होता तो विधानसभा चुनावों में 126 में उसे सिर्फ 57 सीटें भी नहीं मिलती, यदि वो भाजपा के साथ न होती। जनादेश तोड़कर शिवसेना ने महाराष्ट्र के साथ धोखा किया और अब अपने कुकृत्यों को छुपाने के लिए मराठी बनाम बाहरी का राग अलाप रही है। यदि शिवसेना इसी रवैये पर चलती रही तो उसका राजनीतिक अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
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