कॉन्ग्रेस के गाँधी को गुस्सा क्यों आता है… क्योंकि तीसरी बार हारने पर लूडो में भी खिलाड़ी को गुस्सा आ जाता है

कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव होना था। होता क्यों नहीं, आखिर वर्तमान अध्यक्ष ने अपनी पार्टी के निकम्मेपन से कुपित होकर त्यागपत्र जो दे दिया था। वैसे तो जैसा कि कॉन्ग्रेस में सदा से होता आया है, कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष कोई गाँधी ही होता है और गाँधी कभी त्यागपत्र नहीं देते।

दें भी तो किसको? वैसे किसी ने माँगा भी नहीं था। किसी गाँधी से त्यागपत्र भला कौन माँग सकता है? किन्तु फिर भी उन्होंने दे दिया था। देते काहे नहीं, गुस्सा जो थे। गुस्सा आता काहे नहीं, आखिर हारने की भी कोई हद होती है! कोई इतना कैसे हार सकता है? तीसरी बार हारने पर तो लूडो में भी खिलाड़ी को गुस्सा आ जाता है।

चलो हार भी सकता हो तो कोई बात नहीं, लेकिन इतना घनघोर अपमान कोई कैसे सह सकता है? सह तो लेते अगर कोई और स्वयं को जिम्मेदार घोषित कर देता। किन्तु कॉन्ग्रेसी और जिम्मेदार दो अलग-अलग छोरों पर लिखे हुए शब्द हैं, जिनका आपस में कोई रिश्ता नहीं है।

चुनाव के पश्चात जब जनता द्वारा काटी गई नाक को उनके हाथ में धर दिया गया तो पहले एक सप्ताह तक उन्होंने इस पर विचार किया कि यह पार्टी की नाक है या स्वयं उनकी, और उस कटी हुई नाक को लेकर वे भ्रमण करते रहे। तन्द्रा टूटी तो उन्होंने विचार किया कि किसी गाँधी की नाक कैसे कट सकती है? अतः जो नाक कटी है वह निश्चित रूप से पार्टी की ही नाक है।

नाक पार्टी की है तो पार्टी को जिम्मेदारी लेनी चाहिए। लेकिन जब उन्होंने देखा कि पार्टी की ओर से कोई और उस नाक पर अपना दावा नहीं ठोक रहा है, तो उन्होंने इशारों में कहा कि देखो-देखो ये कटी हुई नाक किसकी है? उन्हें लगा कोई तो होगा जो उनकी भावनाओं को समझते हुए उस कटी हुई नाक के लिए स्वयं को अपराधबोध से त्यागपत्र दे देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अध्यक्ष जी ने सीधा पूछा, यह नाक किसकी है? सभी कॉन्ग्रेसियों ने एक स्वर में उत्तर दिया कॉन्ग्रेस में जो है सो सब आपका ही है, हम सब तो आपके दास हैं। 

तब अध्यक्ष जी ने यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि सब जिम्मेदार हैं, लेकिन मैं महान, त्यागी हूँ, निर्मोही हूँ और मैं त्यागपत्र दे रहा हूँ, और तो जिम्मेदार आदमी है ही नहीं। पार्टी में हाहाकार मच गया। जैसा कि सदैव होता आया है। कॉन्ग्रेसी आँखें लाल कर-कर के रोने लगे। एक के बाद एक त्यागपत्र देने लगे। बहुत मनाया,किन्तु अध्यक्ष जी कहाँ मानने वाले थे। वे अड़ गए, बोले किसी और को बना दो, हम नहीं बनेंगे। उधर कॉन्ग्रेसी अड़ गए कि किसी और को वो बनने नहीं देंगे। किसी गाँधी की पादुकाएँ (अथवा इटालियन सैंडल) तो अध्यक्ष बन सकती हैं, किन्तु किसी समझदार को अध्यक्ष बना दे तो कॉन्ग्रेस ही कैसी? 

मान-मनौव्वल का दौर चल पड़ा। झंडा, मोर्चा, प्रार्थना, याचना, जिस कॉन्ग्रेसी से जो बन पड़ा, उसने अध्यक्ष जी को मनाने का प्रयत्न किया। किन्तु इस बार वे नहीं माने। अध्यक्ष जी को चुनाव के बाद से ही नानी की याद आई हुई थी। उन्होंने पुनः कहा नहीं.. नहीं… नहीं।

कॉन्ग्रेसियों ने कहा ऐसे कैसे अध्यक्ष नहीं बनोगे, तुम नहीं अध्यक्ष तो बनेंगी तुम्हारी माताजी अध्यक्ष बनेंगी। वे फिर भी न माने। इस पर कॉन्ग्रेस की एक और गुप्त बैठकी हुई जिसमें पुनः कॉन्ग्रेस ने अपनी पुरातन परम्पराओं का निर्वाह करते हुए किसी भी निर्णय को न लेने का निर्णय किया। माता जी अंतरिम अध्यक्षा बन गईं।

मामले को उन्होंने वैसे ही टरकाया जैसे कि सत्ता में रहते हुए हर महत्त्वपूर्ण मामले को टरकाते रहे। कुछ माह बाद फिर उन्होंने एक बैठक बुलाई, इस बार तो लग रहा था जैसे कोई न कोई अध्यक्ष बन ही जाएगा। कई वरिष्ठ और कई गरिष्ठ नेता अपनी अपनी जुगाड़ बनाना तो चाहते थे, लेकिन कॉन्ग्रेसी थे। कॉन्ग्रेस में दास बनने की सब सोचते हैं, किन्तु अध्यक्ष बनने की केवल कोई गाँधी ही। अतः किसी ने स्वयं आगे आना उचित ही न समझा। फिर भी नया अध्यक्ष के चुनाव किए जाने की घोषणा कर दी गई।

कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव वैसे तो दुनिया का सबसे आसान चुनाव घोषित किया जाना चाहिए। इसमें एक ही विकल्प होता है, जो भी गाँधी सामने हो उसे सभी कॉन्ग्रेसी मिलकर अपना अध्यक्ष मान लेते हैं। कोई सामने न खड़ा होता है, न गाँधी से कोई बड़ा होता है। किंतु इस बार कुछ अलग होने की उम्मीद थी। मुनादी पिटवा दी गई, मीडिया के अधमरे, लुप्त होने की कगार पर खड़े हुए सूत्र पुनः जाग उठे। जैसा कि कॉन्ग्रेस की परम्परा और पहचान है, मीडिया में अलग-अलग नामों पर अटकलें लगाई जाने लगी। 

अतिउत्साह में फूलकर कुप्पा हुए कॉन्ग्रेसी सड़कों पर बैनर लेकर खड़े हो गए। कहने लगे गाँधी के अलावा कोई अध्यक्ष बना तो पार्टी टूट जाएगी। पार्टी नष्ट हो जाए स्वीकार है, लेकिन टूटना नहीं। धन्य है कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं की स्वामिभक्ति और एकता।   

कुछ ने भावनाओं में बहकर चिट्ठी पत्तरी भी लिख डाली- “लिखते हैं खत खून से सियाही न समझना, तुम ही सदा अध्यक्ष थे, तुम ही बने रहना।”

यहाँ तक कि कॉन्ग्रेस दरबार के पत्रकार भी कहने लगे- अरे यार फिर वही ड्रामा। गुप्त बैठक हुई, जिसकी खबरें गुप्ता जी गुप्त रूप से लीक करते रहे। अंतरिम अध्यक्षा ने परम्परानुसार त्यागपत्र दिया, त्यागपत्र किसने लिया, पता नहीं। सिंह साहब ने उनसे अध्यक्ष बने रहने का अनुरोध किया, माताजी ने मना किया। कुछ कॉन्ग्रेसी रोए। कुछ गिड़गिड़ाए, कुछ पैरों में पड़ गए।

संभावित अध्यक्ष जी गुस्से में थे, न जाने क्या क्या बोल गए। एक-दो को संभावित अध्यक्ष जी की बातें बुरी लग गईं। कहने लगे हमने तो जिंदगी भर तुम्हारे कितने केस लड़े हैं, फिर भी फिर भी ऐसा बोल दिया। थोड़ी देर में उन्हें दूध बिस्किट देकर कहा गया- सीताराम सीताराम भजो, तब जाकर चुप हुए। बोले हमारे लिए नहीं कहा गया।

कुछ खींच हुई कुछ तान हुई। अंत में निर्णय हुआ कि गाँँधी आपस में निर्णय कर लें किसको अध्यक्ष बनना है, कॉन्ग्रेसी उसे ही चुन लेंगे। इस पर सभी कॉन्ग्रेसियों ने सहमति जताईl भाजपा ने भी इस प्रस्ताव को बाहर से समर्थन दिया। इस प्रकार कॉन्ग्रेस ने अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए, दासता से मुक्त होने का एक अवसर होते हुए भी किसी गाँधी की सेवा में ही सर झुकाए रखना स्वीकार कर लिया।

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