संविधान, नैतिकता वगैरह की दुहाई देने वाली कॉन्ग्रेस का इतिहास इस मामले में बेहद दागदार रहा है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया गॉंधी तक, सबके लिए गवर्नर कठपुतली जैसे ही रहे। उनका इस्तेमाल पर्दे के पीछे से राज्यों में सत्ता हथियाने के लिए किया गया।
पहले चुनाव के बाद से ही शुरू हुआ सिलसिला
राज्यपाल का इस्तेमाल आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव से ही शुरू हो गया था। साल 1952 के दौरान केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व की कॉन्ग्रेस सरकार थी। तत्कालीन मद्रास में संयुक्त मोर्चे की सरकार के पास ज़्यादा विधायक थे। लेकिन फिर भी उन्हें सरकार बनाने का न्यौता नहीं दिया गया।
कॉन्ग्रेस के नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का प्रस्ताव भेजा गया। सबसे हैरानी की बात यह थी कि उस समय वह खुद विधायक भी नहीं थे। यह पहला मौक़ा था जब संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति का राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किया गया।
दूसरी बार भी नेहरू
संयोग से इस तरह का दूसरा मौक़ा भी जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में ही आया। बात है साल 1957 की जब देश में पहली बार किसी राज्य के भीतर वामपंथी सरकार चुनाव जीत कर आई थी। इस सरकार के मुखिया थे ईएमएस नम्बूदरीपाद, जिन्होंने केरल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार की नींव रखी।
लेकिन कॉन्ग्रेस ने यहाँ भी अलग तरह का दाँव खेला। राज्य में मुक्ति संग्राम शुरू हुआ और कॉन्ग्रेस पार्टी ने इसे आधार बना कर 2 साल के भीतर सरकार गिरवा दी। हालाँकि केरल की पहली सरकार का विरोध बहुत बड़े पैमाने पर हुआ था लेकिन कॉन्ग्रेस ने उस सरकार को गिराने के लिए असंवैधानिक तरीका चुना। क्षेत्रीय स्तर पर यह पहला चुनाव था जब कॉन्ग्रेस ने सत्ता गँवाई थी। इसके बाद नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने संवैधानिक पद का राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किया।
तीसरा कारनामा हरियाणा से
हरियाणा में 1979 में देवीलाल की अगुवाई में लोकदल की सरकार चुन कर आई। इसके कुछ समय बाद जीडी तापसे हरियाणा के राज्यपाल बनाए गए। 1982 में भजनलाल बिश्नोई ने देवीलाल के विधायकों से संपर्क किया। संपर्क के बाद वह विधायकों से संबंध बनाने में भी कामयाब रहे, नतीजा यह निकला एक बार फिर राज्यपाल अहम भूमिका में आए।
जीडी तापसे ने भजनलाल को सरकार बनाने का प्रस्ताव दे दिया। देवीलाल को इस बात की भनक लगी तो वह नाराज हो गए। अपने सारे विधायकों को समेटना शुरू किया लेकिन तब तक राज्यपाल के हिस्से की बातें तय हो चुकी थीं। अंत में मौके का इस्तेमाल करते हुए भजनलाल सरकार बनाने में कामयाब हुए।
इंदिरा भी नहीं रही अछूती
आंध्र प्रदेश में 1983 में एनटी रामाराव की सरकार चुन कर आई थी। यह आंध्र प्रदेश की पहली गैर कॉन्ग्रेसी सरकार थी। उस दौरान ठाकुर रामलाल राज्यपाल थे। तेलुगू देशम पार्टी के नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री एनटी रामाराव को अपनी हार्ट सर्जरी के लिए विदेश जाना पड़ा।
उस वक्त भी केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार थी और इंदिरा गाँधी के हाथों में बागडोर थी। राज्यपाल रामलाल ने केंद्र सरकार में वित्त मंत्री एन भास्कर राव को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। इस फैसले का देश और प्रदेश दोनों की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
अपने इलाज से वापसी के बाद एनटी रामाराव बदलाव इतने बड़े पैमाने पर हुआ राजनीतिक बदलाव देख कर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने इस फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए इसका खूब विरोध किया। नतीजतन केंद्र सरकार को भी कुछ फैसले लेने पड़े। शंकर दयाल शर्मा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए। इसके बाद उन्होंने राज्य की सत्ता दोबारा एनटी रामाराव को सौंपी।
अब चलते हैं कर्नाटक
राज्यपाल को आगे रखते हुए सरकार अस्थिर करने की अगली कहानी भी अस्सी के दशक की है। इस कहानी में भी कॉन्ग्रेस की भूमिका किसी से छुपी नहीं थी। साल 1983 में जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने। कर्नाटक में पहली बार जनता पार्टी की सरकार चुन कर आई थी, इस सरकार ने अपने 5 साल पूरे किए और दोबारा सत्ता में आई।
इसके बाद आया टेलीफ़ोन टेपिंग मामला जिसकी वजह से रामकृष्ण हेगड़े को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इसके बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद सँभाला एस आर बोम्मई ने। उस वक्त राज्यपाल थे पी वेंकटसुबैया। अचानक एक दिन उन्होंने 1989 में सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया। उनका कहना था कि सरकार के पास बहुमत नहीं है, मामला देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुँचा।
यहाँ बोम्मई जीते और सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए एक बड़ी बात कही। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “सरकार के पास बहुमत नहीं है तो इसका निर्णय केवल विधानसभा सदन में हो सकता है।” इस आदेश के बाद कॉन्ग्रेस सरकार की भरपूर किरकिरी हुई और बोम्मई एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने।
झारखंड की त्रिशंकु सरकार
इसके बाद आता है साल 2005 का सबसे चर्चित मामला। जिसमें राज्यपाल द्वारा लिए गए फ़ैसलों से कॉन्ग्रेस सरकार की जमकर किरकिरी हुई थी। झारखंड में त्रिशंकु विधानसभा बनी, उस वक्त झारखंड के राज्यपाल थे सैयद सिब्ते रज़ी। उन्होंने शिबू सोरेन के नेतृत्व वाली त्रिशंकु सरकार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। जल्दी-जल्दी में लिए गए इस फैसले की सभी ने भारी कीमत चुकाई, शिबू सोरेन बहुमत साबित नहीं कर पाए। जिसकी वजह से उन्हें 9 दिन के भीतर ही पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस फैसले की भी पूरे देश में आलोचना हुई, यूपीए सरकार पर खूब आरोप लगे। इसके बाद एनडीए ने सरकार बनाने का दवा पेश किया, अंत में अर्जुन मुंडा की अगुवाई में झारखंड के भीतर एनडीए ने सरकार बनाई।
साल 2009, एक बार फिर कर्नाटक
इस तरह का एक और मौक़ा देखने को मिला था साल 2009 में। कॉन्ग्रेस की सरकार में मंत्री रह चुके हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। उन्होंने अपनी पूर्व पार्टी के प्रति पूरी निष्ठा दिखाते हुए तत्कालीन भाजपा सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था। इस निर्णय की भी पूरे देश में आलोचना हुई, उस वक्त बीएस येदुरप्पा राज्य के मुख्यमंत्री थे। संवैधानिक पद पर बैठे हंसराज राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप पर उतर आए। उन्होंने भाजपा सरकार पर गलत तरीके से सत्ता हासिल करने का आरोप लगाया था।
मद्रास, 1952
1952 में पहले आम चुनाव के बाद ही राज्यपाल के पद का दुरुपयोग शुरू हो गया. मद्रास (अब तमिलनाडु) में अधिक विधायकों वाले संयुक्त मोर्चे के बजाय कम विधायकों वाली कांग्रेस के नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया जो उस समय विधायक नहीं थे.
केरल, 1959
भारत में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में साल 1957 में चुनी गई. लेकिन राज्य में कथित मुक्ति संग्राम के बहाने तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1959 में इसे बर्खास्त कर दिया. यह हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री और आजादी के नायक जवाहर लाल नेहरू का कार्यकाल था. ऐसी तमाम खबरें आईं कि अमेरिका खुफिया एजेंसी सीआईए के दबाव में सरकार ने ऐसा किया. केरल में नम्बूदरीपाद सरकार के खिलाफ सभी परंपरावादी एक हो गए थे. उसका विरोध कांग्रेस लेकर कैथोलिक चर्च, नायर सर्विस सोसाइटी और भारतीय मुस्लिम लीग तक ने किया. यह भारत की पहली क्षेत्रीय सरकार थी जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं थी.
हरियाणा, 1982
वर्ष 1979 में हरियाणा में देवीलाल के नेतृत्व में लोकदल की सरकार बनी. 1982 में भजनलाल ने देवीलाल के कई विधायकों को अपने पक्ष में कर लिया. हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल जीडी तवासे ने भजनलाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. राज्यपाल के इस फैसले से नाराज चौधरी देवीलाल ने राजभवन पहुंच कर अपना विरोध जताया था. अपने पक्ष के विधायकों को देवीलाल अपने साथ दिल्ली के एक होटल में ले आए थे, लेकिन ये विधायक यहां से निकलने में कामयाब रहे और भजनलाल ने विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर दिया.
जम्मू- कश्मीर, 1984
1984 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल बी.के. नेहरू ने केंद्र के दबाव के बावजूद फारूख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली राज्य सरकार के खिलाफ रिपोर्ट भेजने से इनकार कर दिया. अंततः केंद्र की सरकार ने उनका तबादला गुजरात कर दिया और दूसरा राज्यपाल भेजकर मनमाफिक रिपोर्ट मंगवाई गई. राज्य सरकार को बर्खास्त किया गया.
आंध्र प्रदेश, 1984
आंध्र प्रदेश में पहली बार 1983 में एन.टी. रामाराव के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. इसके बाद 1984 में तेलुगू देशम पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव को हाॅर्ट सर्जरी के लिए अचानक विदेश जाना पड़ा. इंदिरा गांधी ने इस मौके का फायदा उठाते हुए राष्ट्रपति के द्वारा सरकार को बर्खास्त करवा दिया. राज्य के तत्कालीन वित्त मंत्री एन भास्कर राव ने दावा किया कि टीडीपी के विधायकों का बहुमत उनके साथ है और इस दावे को मानते हुए राज्यपाल ने सरकार को बर्खास्त कर दिया. हालांकि बाद में रामाराव फिर मुख्यमंत्री बहाल हो गए.
कर्नाटक, 1989
कर्नाटक में 1983 में पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी थी. रामकृष्ण हेगड़े जनता पार्टी की सरकार में पहले सीएम थे. इसके बाद अगस्त, 1988 में एसआर बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. राज्य के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने 21 अप्रैल, 1989 को बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया. सुबैया ने कहा कि बोम्मई सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी है. बोम्मई ने विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल से समय मांगा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. बोम्मई ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फैसला बोम्मई के पक्ष में आया और तत्कालीन प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से बोम्मई सरकार फिर सेबहाल हुई.
गुजरात, 1996
साल 1996 में गुजरात में सुरेश मेहता मुख्यमंत्री थे. बीजेपी नेता शंकर सिंह वाघेला ने दावा किया कि उनके पास 40 विधायकों का समर्थन है. तत्कालीन राज्यपाल ने मेहता से सदन में बहुमत साबित करने को कहा, लेकिन इसके पहले ही सदन में काफी हंगामा हुआ जिसके बाद तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार ने दखल देकर मेहता सरकार को बर्खास्त कर दिया. दिलचस्प यह है कि तब यही देवगौड़ा साहब भारत के प्रधानमंत्री थे और वजुभाई वाला (अभी कर्नाटक के राज्यपाल) राज्य सरकार में एक मंत्री.
झारखंड, 2005
वर्ष 2005 में झारखंड में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने शिबू सोरेन को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई. हालांकि शिबू सोरेन विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने में विफल रहे और नौ दिनों के बाद ही उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद एनडीए ने राज्य में सरकार बनाने का दावा पेश किया. आखिरकार 13 मार्च, 2005 को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार सत्ता में आई.
बिहार, 2005
साल 2005 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा चुनावों के बाद किसी भी दल को बहुमत न आने की अवस्था में विधानसभा भंग करने की सिफारिश की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस फैसले की आलोचना की.
कर्नाटक, 2009
यूपीए-1 की सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके हंसराज भारद्वाज को 25 जून, 2009 को कर्नाटक का राज्यपाल नियुक्त किया गया था. भारद्वाज ने कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया. राज्यपाल का कहना था कि येदियुरप्पा सरकार ने फर्जी तरीके से बहुमत हासिल किया है.
Comments
Post a Comment