चीन को अब ये समझ आ गया है कि भारत के सामने उसे अपनी सीमाओं में ही रहना सीखना होगा.
नई दिल्ली: देश के टुकड़े टुकड़े गैंग और सबूत गैंग के लिए आज एक बहुत बुरी खबर है, लद्दाख में Line Of Actual Control पर टकराव वाली चार जगहों से चीन के सैनिक करीब ढाई किलोमीटर पीछे हट गए हैं. और शायद ये खबर सुनकर आज रात टुकड़े टुकड़े गैंग और सबूत गैंग के सदस्यों को नींद नहीं आएगी.
कूटनीति, शतरंज के खेल की तरह होती है जिसमें आपको दुश्मन की चाल का अंदाजा पहले ही लगाना पड़ता है. और अगर आप इसमें सफल हो जाते हैं तो अक्सर दुश्मन को अपनी चाल वापस लेनी पड़ती है. भारत के साथ चल रहे कूटनीतिक और मनोवैज्ञानिक युद्ध में आज चीन के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है और ये टुकड़े टुकड़े गैंग के लिए भले ही बुरी खबर हो लेकिन देश के लिए ये बहुत अच्छी खबर है.
इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं. पहली ये कि शनिवार को दोनों देशों के बीच कोर कमांडर स्तर की जो बातचीत हुई थी, वो बहुत हद तक सफल रही. और दूसरी बात ये कि चीन को अब ये समझ आ गया है कि भारत के सामने उसे अपनी सीमाओं में ही रहना सीखना होगा.
ये वही चीन है, जो पिछले कुछ दिनों से अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर रहा था, और अपनी सैन्य तैयारियों के वीडियोज पूरी दुनिया में फैला रहा था. आपको ऐसे कई तस्वीरें हमने दिखाई थीं और ये बताया था कि कैसे चीन इस तरह के प्रोपगेंडा वीडियोज से भारत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है. लेकिन ये सब करने के बावजूद अगर चीन के सैनिक लद्दाख में पीछे हट रहे हैं, तो आप चीन की सेना के खोखलेपन और भारत की मजबूती दोनों को समझ सकते हैं. इसे आप एक तरह से चीन का सरेंडर भी कह सकते हैं.
लद्धाख सीमा पर आज का ये घटनाक्रम, एक तरह से भारत के संयम, संकल्प और सख्ती की जीत है. क्योंकि भारत ने चीन को सीधा संदेश दिया था कि सीमा के मामले में भारत कोई समझौता नहीं कर सकता. ये बात दुनिया में भारत के बढ़ते कद की तरफ भी इशारा है क्योंकि दुनिया में ज्यादातर देश ये सोच भी नहीं सकते कि चीन जैसे विस्तारवादी और आक्रामक देश को इस तरह झुकाया जा सकता है, लेकिन भारत ने ऐसा कर दिखाया है, और इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि भारत अब चीन के मनोवैज्ञानिक युद्ध को अच्छी तरह से समझ चुका है.
सीमा पर चीन के सैनिक कहां-कहां से हटे, इसे हम आपको मैप के जरिए समझाते हैं. सीमा पर चीन के साथ चार जगहों पर टकराव है, इसमें गलवान घाटी में तीन जगह और पेंगोंग लेक में एक जगह पर, भारत और चीन के सैनिक आमने सामने थे.
लेकिन अब दोनों देशों के सैनिक, टकराव वाली जगहों से पीछे चले गए हैं. गलवान घाटी के तीन स्थानों पर चीन के सैनिक अपना सैन्य साजोसामान लेकर करीब ढाई किलोमीटर पीछे चले गए हैं. पिछले एक महीने में इस जगह पर चीन के सैनिक LAC से आगे आ गए थे और आसपास की पहाड़ियों पर उन्होंने कब्ज़ा कर लिया था.
चीन के सैनिक लद्दाख में पेंगांग झील के फिंगर 4 तक आ गए थे, जहां भारतीय सैनिकों के साथ उनका टकराव हुआ था. भारत का दावा फिंगर 8 तक है, जहां भारतीय सैनिक गश्त के लिए जाते थे. अब तक भारत और चीन के सैनिक पेंगोंग झील के फिंगर 4 के पास आमने सामने थे. अब यहां से चीन के सैनिक कुछ किलोमीटर पीछे हटे हैं. जिस तरह से चीन का उग्र रवैया दिख रहा था, उसमें कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि इतनी जल्दी दोनों देशों के सैनिक टकराव की स्थिति से पीछे हट जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ है और ये भारत की ताकत को दिखाता है.
चीन पर दबाव एक सत्य है, और इसी सत्य की मजबूरी में उसने लद्दाख की अपनी पोजीशन से पीछे हटने का फैसला किया. चीन को दबाव में लाने वाली ये बात, सरकार और सेना पर भरोसे को और भी मजबूत करती है. लेकिन हमारे यहां कुछ ऐसे लोग हैं, जो अपनी नेतागीरी के चक्कर में चीन के सामने देश के मनोबल को कमजोर करने में लगे हैं.
देखें DNA-
इन लोगों में सबसे प्रमुख नाम, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का है. जो पिछले कई दिनों से चीन के मामले को लेकर राजनीति कर रहे हैं. वो इस संवेदनशील मामले में सरकार का मजाक उड़ा रहे हैं. और ये पूछ रहे हैं कि लद्दाख में भारतीय इलाके पर चीन ने कब्जा कर लिया है कि नहीं? लेकिन आज हम राहुल गांधी से पूछना चाहते हैं कि अगर उनके परनाना पंडित जवाहर लाल नेहरू आज प्रधानमंत्री होते तो क्या वो इसी तरह के सवाल पूछते? क्या राहुल गांधी ने कभी इस बारे में सोचा है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए भारत ने अपनी कितनी जमीन गंवाई है? विपक्ष का नेता होने के नाते राहुल गांधी सरकार से ये सवाल पूछ सकते हैं लेकिन उन्हें ये जवाब भी देना चाहिए कि उनके परिवार के लोगों ने कैसे धीरे धीरे भारत के कई इलाकों पर चीन का कब्जा होने दिया. इसलिए आज हम इस मामले पर राहुल गांधी की जानकारियां भी दुरुस्त कर देना चाहते हैं.
राहुल गांधी को शायद पता नहीं होगा कि 1962 के युद्ध के बाद अक्साई चिन चिन और लद्दाख में भारत की 43 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर चीन का कब्जा हो गया था. इसमें चीन ने 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन 1962 के युद्ध में छीन ली थी, और करीब 5 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन उसे पाकिस्तान ने एक समझौते के तहत सौंप दी थी. ये 43 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन डेनमार्क, नीदरलैंड्स, स्विटजरलैंड जैसे एक-एक देश के बराबर है. इससे पहले जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान ने कश्मीर की 85 हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा की जमीन छीन ली थी. इसमें पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान का इलाका शामिल है. यानी देश की एक लाख 28 हजार वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा जमीन पंडित नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए चीन और पाकिस्तान के पास चली गई थी. ये करीब करीब बांग्लादेश के आकार के बराबर है और दुनिया में करीब 90 देश ऐसे हैं जो इससे छोटे हैं. लेकिन क्या कोई बता सकता है कि कभी राहुल गांधी ने इस पर बात क्यों नहीं की? या कोई सवाल क्यों नहीं पूछा?
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चीन जिस Hong Kong के लिए पूरी दुनिया से लड़ रहा है, उसका आकार भी सिर्फ एक हजार 50 वर्ग किलोमीटर है. लेकिन चीन इतने छोटे इलाके को भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता जबकि भारत कुछ लोगों की गलती की वजह से अपनी ही जमीन का एक बहुत हिस्सा दुश्मन देशों के हाथों गंवा चुका है.
आज चीन के साथ जो सीमा विवाद है वो बहुत हद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की देन है. क्योंकि उन्होंने समय रहते चीन को पहचाना नहीं, वो चीन के साथ मेल-मिलाप करते रहे, उसकी तारीफें करते रहे, हिंदी-चीनी भाई भाई का नारा देते रहे, और जिस दौरान वो चीन के साथ दोस्ती के नशे में चूर थे उसी समय चीन ने पहले तिब्बत पर कब्जा किया और जब वो कब्जा पूरा हो गया तो चीन ने अक्साई चिन के इलाके पर भी कब्जे की योजना बना ली.
जवाहर लाल नेहरू की गलती ये थी कि उन्होंने सेना द्वारा दी गई चेतावनियों को कोई महत्व नहीं दिया और वो सेना की सलाह की अनदेखी करते रहे. ना तो उन्होंने सेना को युद्ध की तैयारी करने दी और ना ही चीन के साथ सीमा सड़कों का निर्माण होने दिया. जबकि इस दौरान चीन भारत की सीमा के पास अपने सैन्य इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाता रहा.
वर्ष 1952 में कुलवंत सिंह कमेटी ने तत्कालीन भारत सरकार को चीन के खतरे से आगाह किया था और तैयारी करने की सलाह दी थी, लेकिन इस पर कोई अमल नहीं हुआ.
इसके विपरीत जवाहर लाल नेहरू चीन के साथ पंचशील समझौता करने में व्यस्त थे और ऐसे समझौते के जरिए तिब्बत पर चीन के कब्जे को मान्यता दे रहे थे और ये मान कर बैठे थे कि चीन कभी भारत के खिलाफ साजिश नहीं करेगा.
लेकिन इस दौरान चीन एक एक इंच करके भारत के इलाकों पर कब्जा करने की योजना बना रहा था.
वर्ष 1955 के बाद जब चीन, अक्साई चिन पर कब्जे की योजना पर आगे बढ़ने लगा, और उसने अक्साई चिन से होकर गुजरने वाली सड़कें बना ली, तब भी भारत के तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व पर इसका कोई असर नहीं पड़ा.
उस समय तक चीन के नेता भारत के दौरे कर रहे थे और भारत ये समझ रहा था कि चीन ऐसा कुछ नहीं करेगा, जिससे भारत के साथ उसके संबंधों पर असर पड़े.
जब तक चीन के असली मकसद को भारत समझ पाता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, भारत ने सीमा पर अपनी ताकत बढ़ाई और चीन के दावे वाले इलाके में सैन्य टुकड़ियां भेजीं जाने लगीं, लेकिन देर से शुरु हुई ये तैयारियां भी आधी अधूरी थीं और सेना चीन के हमले का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए युद्ध जब शुरू हुआ तो हम जल्द ही हार गए.
नेहरू की सबसे बड़ी गलती मानी जाती है, 1962 के युद्ध में वायुसेना को शामिल होने की इजाजत न देना. उस समय भारत की वायुसेना के मुकाबले चीन की वायुसेना बहुत कमजोर थी. अगर भारतीय वायुसेना युद्ध में उतरती तो युद्ध का नतीजा कुछ और भी हो सकता था.
उस वक्त की सरकार कितनी गंभीर थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब चीन से युद्ध के हालात बन रहे थे तब तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिस्सा लेने अमेरिका चले गए. इसी दौर में प्रधानमंत्री नेहरू भी एक के बाद एक विदेश दौरे कर रहे थे. और जवाहर लाल नेहरू और वीके कृष्णन मेनन के सबसे चेहते सैन्य अफसर, लेफ्टिनेंट जनरल बी एम कौल, कश्मीर में छुट्टियां मना रहे थे
जब तक चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह से कब्जा नहीं किया था तब तक चीन ये कहता था कि उसके और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है, क्योंकि तब उसे तिब्बत पर कब्जा करने के लिए भारत की मदद की जरूरत थी. लेकिन जैसे ही चीन ने तिब्बत को पूरी तरह से हड़प लिया, वो भारत के साथ सीमा विवाद को हवा देने लगा. इसके लिए चीन ने नए नक्शे जारी करने शुरू कर दिए, इन नक्शों में भारत के कई इलाकों को चीन में दिखाया गया. चीन अपनी सहूलियत के हिसाब से समय समय पर कैसे अपने नक्शे बदलता रहा है और कैसे पुराने नक्शों को नकारता रहा है? इसे हम आपको पुराने नक्शों के आधार पर समझाना चाहते हैं.
वर्ष 1933 के नक्शे को उसी वर्ष चीन के शिक्षा और साहित्य विभाग ने भी छापा था. इस नक्शे के हिसाब से अक्साई चिन का ज़्यादातर इलाका भारत का ही हिस्सा था. इस नक्शे में लद्दाख में श्योक नदी के दक्षिण पूर्व इलाके को दिखाया गया है और इसमें चेंग चेमो वैली, स्पांगुर लेक और पेंगाग लेक का पश्चिमी हिस्सा भारत में दिखाया गया है. ये नक्शा भारत-चीन की सीमा बताने वाली उस जॉनसन लाइन के आधार पर था, जिसे वर्ष 1865 में हुए सर्वे के आधार पर तैयार किया गया था. आजादी के बाद भी इसी जॉनसन लाइन से भारत और चीन की सीमा का निर्धारण होता था, और चीन को इस पर तब कोई आपत्ति नहीं थी.
दूसरा नक्शा वर्ष 1951 में चीन ने छापा था. इस नए नक्शे के जरिए चीन ने पुराने नक्शे के कई भारतीय इलाकों पर अपना दावा जता दिया. उदाहरण के लिए स्पांगुर लेक पूरी तरह से चीन में दिखा दी गई और पेंगोंग लेक का बड़ा हिस्सा भी चीन का बता दिया गया. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ये वही समय था, जब चीन ने भारत की सीमा के अंदर घुसकर अक्साई चिन में सड़क बनाने की तैयारी कर ली थी, यानी इसे सही ठहराने के लिए उसने अपने नक्शे बदल दिए. लेकिन भारत के राजनैतिक नेतृत्व को चीन की ये धोखेबाज़ी समझ में नहीं आई और भारत के कई नेता चीन के साथ दोस्ती की धुन में ही डूबे रहे. यहां तक कि तब भारत के सुरक्षा बल अक्साई चिन में गश्त करने के लिए भी नहीं भेजे जाते थे, इसलिए इस सड़क के बारे में भारत को बहुत वर्षों के बाद पता चला.
इसके बाद नवंबर 1959 में चीन की Map Printing Society ने चीन का एक और नक्शा छापा. ये वर्ष 1951 का ही नक्शा था, लेकिन इसे चीन ने जनता के बीच आधिकारिक तौर पर प्रचारित करने के लिए नए सिरे से छापा. इस नक्शे में भी भारत के इलाकों को चीन की सीमा में दिखाया गया. ये वो वक्त था, जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई भारत के दौरे पर आए थे. भारत ने तब इस नक्शे पर आपत्ति भी दर्ज की थी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, और चीन आधिकारिक तौर पर भारत के इलाकों पर दावा करने लगा था.
इसी नक्शे के आधार पर चीन ने वर्ष 1960 की अपनी Claim Line बनाई जिसमें न सिर्फ अक्साई चिन, बल्कि लद्दाख में पेंगांग झील का बड़ा हिस्सा और गलवान घाटी को भी चीन का हिस्सा बता दिया. इस समय भी चीन अपनी इसी Claim Line को ही मानता है और उसी के हिसाब से Line of Actual Control यानी LAC का निर्धारण करता है.
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