मिलिये भारत में मौजूद चीनी एजेंटों से: ये रहते भारत में हैं, इनका दिल चीन के लिए धड़कता है खुल गयी पोल!
वर्ष 1962 में जब भारत-चीन के बीच युद्ध हुआ था, तो तत्कालीन नेहरू सरकार ने भारत में रह रहे चीनी मूल के लोगों को जासूसी के आरोप में बंदी बना लिया था। तब भारत सरकार को लगा था कि ये लोग भारत में रहकर देश की सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं। उन लोगों को 3 से 5 सालों के लिए राजस्थान के देओली में जेल में बंद कर दिया गया था और उन्हें बेहद दयनीय स्थिति में रहना पड़ा था। कईयो को तो जबरदस्ती वापस चीन भेज दिया गया था। बाद में जब कुछ लोगों को वापस भारत आने की छूट दी गयी तो तब तक उनके घरों और व्यापार को लूट दिया गया था। सरकार ने तब इन लोगों पर तो अत्याचार कर चीनी जासूसी को रोकने की कोशिश की, लेकिन नेहरू सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जो देश की राजनीति में सक्रिय रहकर खुलेआम चीन के हितों को बढ़ावा दे रहे थे। जी हाँ, हम बात का रहे हैं देश की कम्युनिस्ट पार्टी की।
वर्ष 1962 का युद्ध हो, या फिर वर्ष 2020 में भारत-चीन का बॉर्डर विवाद, देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने हमेशा से ही चीन का पक्ष लिया है। नेहरू उस वक्त ये समझने में भूल कर बैठे कि चीन को भारत में जासूसी करने के लिए अपने नागरिकों की ज़रूरत नहीं है, बल्कि उसके लिए काम कर रहे भारतीय नागरिक के रूप में चीनी एजेंट ही काफी हैं। आज बॉर्डर पर जब भारत-चीन के बीच विवाद चल रहा है, तो भी देश में कम्युनिस्ट पार्टी, कुछ न्यूज़ पोर्टल और कुछ राजनेता खुलकर चीन के एजेंडे को ही हवा दे रहे हैं। आज हमें ये देखना होगा कि ऐसे वो कौन लोग हैं जो भारत में रहकर चीन की भाषा बोलते हैं।
उदाहरण के लिए देश की कम्युनिस्ट पार्टी की ही बात कर लेते हैं। बॉर्डर विवाद पर जब केंद्र सरकार और पीएम मोदी ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाने का फैसला लिया, तो कम्युनिस्ट पार्टी खुलकर चीन के पक्ष में बोली। कम्युनिस्ट पार्टी और चीन के मुखपत्र Global times के बयानों में मानो कोई फर्क ही नहीं था। दरअसल, सर्वदलीय बैठक में सीपीआई के नेता डी राजा ने कहा कि हमें अपने गठबंधन में अमेरिकी प्रयासों का विरोध करने की आवश्यकता है। इसके अलावा हद तो तब हो गयी जब सीपीआई (एम) के सीताराम येचुरी ने पंचशील के सिद्धांतों पर जोर दिया। वही पंचशील जिसे चीन कब का रद्दी में फेंक चुका है। अमेरिका-भारत के बढ़ते रिश्तों से सबसे ज़्यादा तकलीफ चीन के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को ही होती दिखाई दे रही है।
इसके अलावा देश की कांग्रेस पार्टी का भी यही हाल दिखाई देता है। कांग्रेस पार्टी और चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच वर्ष 2008 में एक MOU यानि समझौता साइन हो चुका है जिसके तहत इन दोनों ही पार्टियों को महत्वपूर्ण द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर एक-दूसरे को जानकारी देने का अवसर मिलता है जिसकी कोई समय सीमा नहीं है। इन दोनों पार्टियों की नज़दीकियों को इसी बात से समझा जा सकता है कि राहुल गांधी कई मौकों पर चीनी अधिकारियों के साथ बैठक करने को लेकर विवादों में आ चुके हैं। इसके अलावा देश में अशोक स्वेन जैसे लोग भी भारत में किसी चीनी एजेंट की भांति काम करने से पीछे नहीं हटते हैं। भारत-चीन बॉर्डर विवाद पर अशोक स्वेन की इस टिप्पणी से ही पता लगाया जा सकता है कि वे किसके पाले में हैं। हाल ही में उन्होंने ट्वीट किया था कि “चीन इसलिए ताकतवर है, क्योंकि चीन के पास कई दोस्त हैं, मोदी ने देश को चार मोर्चों पर युद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है, यानि कश्मीर, नेपाल, चीन और पाकिस्तान”।
इतना ही नहीं, भारत के कुछ मीडिया पोर्टल भी खुलकर चीन के पक्ष में लेख लिख रहे हैं। एक तरफ जहां भारत में चीन के सामान का बहिष्कार करने की मुहिम चालू है, तो ऐसे में कुछ मीडिया पोर्टल जमकर नकारात्मकता फैलाने में लगे हैं। उदाहरण के लिए द वायर ने चीन को श्रेष्ठ दिखाने में अपने लेख में कोई कसर नहीं छोड़ी और भारत को पिछड़ा बताने का ज़बरदस्त प्रयास किया गया है। द वायर के अनुसार “भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर चीन है, और जब भारत के पास मैन्युफैक्चरिंग में कोई भी खूबी या उचित क्षमता न हो, तो चीन से पंगा मोल लेना हद दर्जे की बेवकूफी होगी”। इसी प्रकार आउटलुक इंडिया और द लोजिकल इंडियन जैसे मीडिया पोर्टल्स ने भी भारत को नीचा दिखाने का भरसक प्रयास किया।
भारत में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है, जो रहते तो भारत में हैं, लेकिन उनका दिल चीन के लिए ही धड़कता है। देश की केंद्र सरकार को अगर देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होने देना है, तो सबसे पहले ऐसी मानसिकता वाले लोगों को ठिकाने लगाना होगा।
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