सरदार पटेल ने जब नेहरू को फटकारा था,नेहरू ने अपनी बहन की मानी, 37हज़ार 744 वर्ग किलोमीटर चीन के कब्जे में

1947-48 में जब आज़ाद हिंदुस्तान का संविधान बनाया जा रहा था, तभी चीन में 1949 की क्रांति हो गई और हुक़ूमत को माओत्से तुंग की “पीपुल्स रिवोल्यूशन” ने उखाड़ फेंका।
नेहरू हमेशा से चीन से बेहतर ताल्लुक़ चाहते थे और च्यांग काई शेक से उनकी अच्छी पटरी बैठती थी, लेकिन इस माओत्से तुंग का क्या करें! कौन है यह माओत्से तुंग और कैसा है इसका मिजाज़, यह जानना नेहरू के लिए ज़रूरी था। लिहाज़ा, उन्होंने अपने राजदूत को माओ से मिलने भेजा।
ये राजदूत वास्तव में एक इतिहासकार थे। प्रख्यात इतिहासविद् केएम पणिक्कर। वे इस भावना के साथ माओ से मिलने पहुंचे कि प्रधानमंत्री चीन के साथ अच्छे रिश्ते बरक़रार रखने के लिए बेताब हैं। लिहाज़ा, उन्होंने माओ से मिलने के बाद जो रिपोर्ट नेहरू को सौंपी, वो कुछ इस तरह से थी :
“मिस्टर चेयरमैन का चेहरा बहुत कृपालु है और उनकी आंखों से तो जैसे उदारता टपकती है। उनके हावभाव कोमलतापूर्ण हैं। उनका नज़रिया फ़िलॉस्फ़रों वाला है और उनकी छोटी-छोटी आंखें स्वप्न‍िल-सी जान पड़ती हैं। चीन का यह लीडर जाने कितने संघर्षों में तपकर यहां तक पहुंचा है, फिर भी उनके भीतर किसी तरह का रूखापन नहीं है। प्रधानमंत्री महोदय, मुझे तो उनको देखकर आपकी याद आई! वे भी आप ही की तरह गहरे अर्थों में “मानवतावादी” हैं!”
मनुष्यता के इतिहास के सबसे दुर्दांत तानाशाहों में से माओत्से तुंग के बारे में यह निहायत ही हास्यास्पद और झूठी रिपोर्ट पणिक्कर महोदय द्वारा नेहरू बहादुर को सौंपी जा रही थी!
नेहरू बहादुर मुतमुईन हो गए!
महज़ एक साल बाद चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और उस पर बलात कब्ज़ा कर लिया।
तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के ग़ुस्से का कोई ठिकाना नहीं था और उन्होंने प्रधानमंत्री को जाकर बताया कि चीन ने आपके राजदूत को बहुत अच्छी तरह से मूर्ख बनाया है। उन्होंने यह भी कहा कि चीन अब पहले से ज़्यादा मज़बूत हो गया है और उससे सावधान रहने की ज़रूरत है। नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा और कहा, “तिब्बत के साथ चीन ने जो किया, वह ग़लत था, लेकिन हमें डरने की ज़रूरत नहीं। आख़िर हिमालय पर्वत स्वयं हमारी रक्षा कर रहा है। चीन कहां हिमालय की वादियों में भटकने के लिए आएगा!”
यह अक्टूबर 1950 की बात है। दिसंबर आते-आते सरदार पटेल चल बसे। अब नेहरू को मनमानी करने से रोकने वाला कोई नहीं था।
भारत और चीन की मीलों लंबी सीमाएं अभी तक अनिर्धारित थीं और किसी भी समय टकराव का कारण बन सकती थीं, ख़ासतौर पर चीन के मिजाज़ को देखते हुए। 1952 की गर्मियों में भारत सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल बीजिंग पहुंचा। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कौन कर रहा था? प्रधानमंत्री नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित!
अब विजयलक्ष्मी पंडित ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर माओ के गुण गाए। उन्होंने कहा, “मिस्टर चेयरमैन का हास्यबोध कमाल का है और उनकी लोकप्रियता देखकर तो मुझे महात्मा गांधी की याद आई!” उन्होंने चाऊ एन लाई की भी तारीफ़ों के पुल बांधे।
नेहरू बहादुर फिर मुतमईन हुए!
1954 में भारत ने अधिकृत रूप से मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और चीन के सा‍थ “पंचशील” समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए।
लेकिन नेहरू के आत्मघाती तरक़श में केएम पणिक्कर और विजयलक्ष्मी पंडित ही नहीं थे। नेहरू के तरक़श में वी कृष्णा मेनन भी थे। भारत के रक्षामंत्री, जिनका अंतरराष्ट्रीय समुदाय में ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया जाता था और जो एक बार “टाइम” मैग्ज़ीन के कवर पर संपेरे के रूप में भी चित्र‍ित किए जा चुके थे। भारत में भी उन्हें कोई पसंद नहीं करता था। लेकिन, जैसा कि स्वीडन के तत्कालीन राजदूत अल्वा मिर्डल ने चुटकी लेते हुए कहा था, “वीके कृष्णा मेनन केवल इसीलिए प्रधानमंत्री नेहरू के चहेते थे, क्योंकि एक वे ही थे, जिनसे प्रधानमंत्री कार्ल मार्क्स और चार्ल्स डिकेंस के बारे में बतिया सकते थे!”
रामचंद्र गुहा ने आधुनिक भारत का जो इतिहास लिखा है, उसमें उन्होंने तफ़सील से बताया है कि तब “साउथ ब्लॉक” में एक सर गिरिजा शंकर वाजपेयी हुआ करते थे, जो प्रधानमंत्री को लगातार आगाह करते रहे कि चीन से चौकस रहने की ज़रूरत है, लेकिन प्रधानमंत्री को लगता था कि सब ठीक है। वो “हिंदी चीनी भाई भाई” के नारे बुलंद करने के दिन थे।
1956 में चीन ने “अक्साई चीन” में सड़कें बनवाना शुरू कर दीं, नेहरू के कान पर जूं नहीं रेंगी।
भारत-चीन के बीच जो “मैकमोहन” रेखा थी, उसे अंग्रेज़ इसलिए खींच गए थे ताकि असम के बाग़ानों को चीन ना हड़प ले, लेकिन “अक्साई चीन” को लेकर वैसी कोई सतर्कता भारत ने नहीं दिखाई। 1958 में चीन ने अपना जो नक़्शा जारी किया, उसमें “अक्साई चीन” में जहां-जहां उसने सड़कें बनवाई थीं, उस हिस्से को अपना बता दिया। 1959 में भारत ने दलाई लामा को अपने यहां शरण दी तो माओत्से तुंग ग़ुस्से से तमतमा उठा और उसने भारत की हरकतों पर कड़ी निगरानी रखने का हुक्म दे दिया।
1960 में चीनी प्रीमियर चाऊ एन लाई हिंदुस्तान आए और नेहरू से ऐसे गर्मजोशी से मिले, जैसे कोई बात ही ना हो। आज इंटरनेट पर चाऊ की यात्रा के फ़ुटेज उपलब्ध हैं, जिनमें हम इस यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने वालों को हाथों में यह तख़्‍ति‍यां लिख देख सकते हैं कि “चीन से ख़बरदार!” ऐसा लग रहा था कि जो बात अवाम को मालूम थी, उससे मुल्क के वज़ीरे-आज़म ही बेख़बर थे!
1961 में भारत की फ़ौज ने कुछ इस अंदाज़ में “फ़ॉरवर्ड पॉलिसी” अपनाई, मानो रक्षामंत्री मेनन को हालात की संजीदगी का रत्तीभर भी अंदाज़ा ना हो। लगभग ख़ुशफ़हमी के आलम में “मैकमोहन रेखा” पार कर चीनी क्षेत्र में भारत ने 43 चौकियां तैनात कर दीं। चीन तो जैसे मौक़े की ही तलाश में था। उसने इसे उकसावे की नीति माना और हिंदुस्तान पर ज़ोरदार हमला बोला। नेहरू बहादुर हक्के बक्के रह गए। “हिंदी चीनी भाई भाई” के शगूफ़े की हवा निकल गई। पंचशील “पंक्चर” हो गया। भारत को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। चीन ने अक्साई चीन में अपना झंडा गाड़ दिया।
पणिक्कर, विजयलक्ष्मी पंडित और वी कृष्णा मेनन : नेहरू की चीन नीति के ये तीन पिटे हुए मोहरे थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री को चीन के बारे में भ्रामक सूचनाएं दीं, क्योंकि प्रधानमंत्री हक़ीक़त सुनने के लिए तैयार नहीं थे। और जो लोग उन्हें हक़ीक़त बताना चाहते थे, उनकी अनसुनी की जा रही थी।

चीन ने सितम्बर 1957 में शिजियांग से तिब्बत के गरटोक तक एक हाईवे का निर्माण कार्य समाप्त किया था। यह क्षेत्र अक्साई चिन के पठार यानी भारत के लद्दाख का सीमावर्ती हिस्सा है। इस सड़क निर्माण का एकमात्र उद्देश्य चीनी वामपंथी सरकार की विस्तारवादी नीतियों को बढ़ावा देने के लिए था। इसी के साथ जल्दी ही 28 जुलाई, 1959 को उत्तरी पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना ने घुसपैठ भी शुरू कर दी।
संभवतः यह भारत-चीन युद्ध की पहली एक आहट थी, जिसे तत्कालीन भारत सरकार ने समझने में चूक कर दी। एक महीने बाद ही 25-26 अगस्त को लोंग्जू में चीनी सेना दूसरी बार घुसपैठ कर चुकी थी। इस बार दोनों देशों की सेनाओं के बीच गोलीबारी की भी ख़बरें सामने आई थी।
इसी साल 20 अक्टूबर को चीन ने लद्दाख में फिर से घुसपैठ कर तीन भारतीय जवानों को बंधक बना लिया। इस दिन भारत और चीन की सेनाओं के बीच दूसरी बार गोलीबारी हुई, जिसमें कुछ भारतीय सैनिकों ने अपना बलिदान दिया। हालाँकि, इस मुठभेड़ में पहली बार चीन के कई सैनिक भी मारे गए थे।
इस मुठभेड़ के बाद 14 नवंबर, 1959 को हमारे सैनिकों को चीन के कब्जे से छुड़ाने के लिए दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता वार्ता बुलाई गई। परिणामस्वरूप 10 भारतीय जवानों को चीन सरकार ने वापस भारत को सौंप दिया।

इसी दौरान 1 सितम्बर, 1959 को द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने भारतीय सीमा के साथ चीन का एक नक्शा प्रकाशित किया। जिसमें अखबार ने चीन की विस्तारवादी नीति का उल्लेख करते हुए बताया कि वह कुल 57,000 वर्ग किलोमीटर के विदेशी भूभाग पर कब्ज़ा करना चाहता है – जिसमें भारत के असम – 17,000 वर्ग किलोमीटर और कश्मीर – 22,000 वर्ग किलोमीटर हिस्सा शामिल था।
अगले साल अप्रैल 1960 में चीन के प्रधानमंत्री झ़ोउ एनलाई की पांच दिवसीय भारत यात्रा प्रस्तावित थी। इसे ध्यान में रखते हुए भारत के मुख्य विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नेहरू को भारतीय पक्ष के संदर्भ में ठोस कदम उठाने की नसीहत दी। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच सीमा विवाद के समाधान के लिए कई बैठकें हुई लेकिन दुर्भाग्य से बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी।
हालाँकि, इन बैठकों में दोनों प्रधानमंत्री राजनायिक तौर पर सीमा विवाद को सुलझाने के लिए तैयार हो गए थे। इस प्रकार अधिकारी स्तर पर कुल तीन बैठकें हुईं – जिसमें आखिरी बैठक 7-12 दिसंबर, 1960 को हुई। जिसके बाद दोनों देशों के अधिकारियों ने सीमा पर वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट बनाकर अपने-अपने देश की सरकारों को सौंप दिया।
इन रिपोर्ट्स को 14 फरवरी, 1961 को प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद के समक्ष पेश किया। दरअसल, प्रधानमंत्री ने दो रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी थी – इसमें एक भारतीय अधिकारियों की तरफ से तैयार की गई, और दूसरी चीन के अधिकारियों की रिपोर्ट शामिल थी। चीन की वास्तविक रिपोर्ट उनकी मन्दारिन भाषा में थी। इसे चीन की सरकार ने अंग्रेजी में अनुवादित कर भारत को सौंपा था लेकिन ऊपर ‘अनाधिकारिक’ लिख दिया था।
जब प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन सरकार से इस बात का स्पष्टीकरण माँगा और बताया कि उन्हें परंपरा के अनुसार इस रिपोर्ट को संसद के समक्ष पेश करना है तो इस पर चीन की तरफ से जवाब आया कि अंग्रेजी की रिपोर्ट ‘अनाधिकारिक’ ही रहेगी क्योंकि उसमें कुछ गलतियाँ हो सकती हैं। चूँकि चाइनीज भाषा किसी संसद सदस्य को आती नहीं थी इसलिए मात्र इसी कारण से रिपोर्ट पर संसद में चर्चा नहीं हो सकी। (लोकसभा – 14 फरवरी, 1961)
यह भारत के प्रधानमंत्री नेहरू की विदेश नीति थी, जिसमें भाषाई कमियों को दूर करने का भी कोई समाधान नहीं था। अगर उस दिन संसद में रिपोर्ट पर चर्चा हो जाती तो संभवतः चीन की सोच का आकलन किया जा सकता था। अतः भारत की सीमा सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक सामरिक रणनीति बनाई जा सकती थी। शायद एक साल बाद होने वाले भारत-चीन युद्ध में भी भारत को कोई लाभ मिल जाता।
एकतरफ प्रधानमंत्री की वार्ता निष्फल रही तो दूसरी तरफ उनके लिए महत्वपूर्ण सामरिक रिपोर्ट्स कोई मायने तक नहीं रखती थी। इस तरह वे भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने की बनावटी कवायदों में लगे हुए थे।
साल 1959 से लेकर 1961 तक भारत-चीन सीमा विवाद अपने चरम पर था। जब धीरे-धीरे मौके हाथ से फिसल रहे थे, तो प्रधानमंत्री के साथ उनके करीबी और खास समझे जाने वाले रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन पर भी सवाल उठने लगे। उस दौरान अधिकतर नेताओं और सेना अधिकारियों का मानना था कि भारत-चीन के बीच पैदा हो रहे गतिरोधों में कृष्णा मेनन की भूमिका संदिग्ध है। इसलिए उन्हें मंत्रिपद से हटाने के भरसक प्रयास किए गए।

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