सरकार कैसी भी हो, हमारे देश में गठबंधन सरकारों पर ही मीडिया का अधिकांश ध्यान केन्द्रित रहता है। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार से लेकर लगभग हर राज्य में एक स्थिर सरकार है। परंतु कर्नाटक में इस रीति पर ग्रहण सा लग गया, जब जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर एक खिचड़ी सरकार बनाई। परंतु लोकसभा चुनाव के परिणाम के कुछ ही महीनों बाद ये खिचड़ी गठबंधन टूट गयी और भाजपा एक बार फिर सत्ता में वापिस आ गयी। बिहार, हरियाणा और महाराष्ट्र में गठबंधन की सरकारें चल रही हैं। बिहार और हरियाणा में गठबंधन की स्थिर सरकार है, जबकि महाराष्ट्र के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। यहां केवल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के उद्देश्य से शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ एक बेमेल गठबंधन किया।
परंतु इस गठबंधन को बने अभी छह महीनें भी पूरे नहीं हुए हैं, और अभी से ही गठबंधन में दरार की बातें आम हो चली हैं। सीएम उद्धव ठाकरे अपने ऊटपटांग बयानों के लिए अक्सर सुर्खियों में बने रहते हैं, जिससे उनकी पार्टी शिवसेना को हिन्दुत्व के मूल विषय से समझौता करने के लिए अक्सर आलोचना का सामना करना पड़ता है। उधर, राज ठाकरे भी सुर्खियों में हैं, क्योंकि उनकी पार्टी एमएनएस ने अपने महाअधिवेशन में अपने तेवर बदलते हुए अपनी विचारधारा हिन्दुत्व के विषय पर दो-दो हाथ करने को तैयार है। चाहे अपने पार्टी का झण्डा बदलना हो, या फिर वीर सावरकर को मंच पर सम्मान का स्थान देना हो, राज ठाकरे ने वो सब किया है, जो शिवसेना को करना चाहिए था।
राज ठाकरे के एग्रेसिव हिन्दुत्व की नीति ने उद्धव ठाकरे और शरद पवार को नाकों चने चबवाने पर मजबूर कर दिया। राज ठाकरे की नीतियों का असर है कि सावरकर के अपमान पर आंखें मूंदने वाली शिवसेना न केवल सीएए और एनआरसी का समर्थन करती दिखाई दे रही है, अपितु अयोध्या जाने के अपने पुराने निर्णय पर भी अमल करती दिखाई दे रही है।
राज ठाकरे के बढ़ते प्रभाव को दरकिनार करने के उद्देश्य से शरद पवार ने हाल ही में कहा,
“ऐसे लोगों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं। जो लोग राजनीति में सक्रिय हैं, उन्हे गंभीरता से लीजिये। ऐसे भाषण [राज ठाकरे के भाषण] केवल जनता का मनोरंजन करने के लिए हैं”।
परंतु शायद शरद काका यह भूल गए कि वह राज ठाकरे हैं, उद्धव ठाकरे नहीं। जो वे बोलते हैं, वो करके भी दिखाते हैं। शरद पवार के गढ़ समझे जाने वाले पुणे में मानों उन्हे चुनौती देते हुए एमएनएस के कार्यकर्ता पुलिस अफसरों सहित बांग्लादेशी घुसपैठियों को ढूंढने निकल पड़े, और उन्होंने उन इलाकों में जांच पड़ताल की, जहां बांग्लादेशी घुसपैठियों के रहने की ज़्यादा आशंका थी। उन्होंने कई लोगों को एक से अधिक वोटर आईडी के साथ पकड़ा।
इससे पहले एमएनएस ने सीएए और घुसपैठियों को बाहर खदेड़ने के पीएम नरेंद्र मोदी के नीतियों का जोरदार स्वागत किया। इसी परिप्रेक्ष्य में रायगढ़ जिले में एमएनएस ने पनवेल क्षेत्र में पोस्टर्स लगाते हुए चेतावनी दी,
‘बांग्लादेशियों, हमारा देश छोड़ दो वरना एमएनएस स्टाइल में निकाले जाओगे’।
सच कहें तो राज ठाकरे बालासाहेब ठाकरे के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। चाहे उनका वक्तव्य, या फिर हिन्दुत्व के विषय पर उनकी पकड़, राज ठाकरे मानों बालासाहेब के प्रतिबिंब हैं। वे जनता को उसी शैली में आकर्षित करते हैं, जैसे बाल ठाकरे करते थे। उधर, उद्धव ठाकरे तो मानो कांग्रेस और एनसीपी के सरकारी अर्दली बनकर रह गए हैं, जिनका काम दोनों पार्टियों द्वारा स्वीकृत निर्णयों पर हस्ताक्षर करना है। यदि राज ठाकरे ढंग से अपनी नीतियों को लागू करें, तो वे आराम से शिवसेना के वोटर बेस प्राप्त कर सकते हैं। उधर, भाजपा को भी एक भरोसेमंद साथी मिलेगा, जो सत्ता के लालच में शिवसेना की तरह उनका साथ नहीं छोड़ेगा।
परंतु इस गठबंधन को बने अभी छह महीनें भी पूरे नहीं हुए हैं, और अभी से ही गठबंधन में दरार की बातें आम हो चली हैं। सीएम उद्धव ठाकरे अपने ऊटपटांग बयानों के लिए अक्सर सुर्खियों में बने रहते हैं, जिससे उनकी पार्टी शिवसेना को हिन्दुत्व के मूल विषय से समझौता करने के लिए अक्सर आलोचना का सामना करना पड़ता है। उधर, राज ठाकरे भी सुर्खियों में हैं, क्योंकि उनकी पार्टी एमएनएस ने अपने महाअधिवेशन में अपने तेवर बदलते हुए अपनी विचारधारा हिन्दुत्व के विषय पर दो-दो हाथ करने को तैयार है। चाहे अपने पार्टी का झण्डा बदलना हो, या फिर वीर सावरकर को मंच पर सम्मान का स्थान देना हो, राज ठाकरे ने वो सब किया है, जो शिवसेना को करना चाहिए था।
राज ठाकरे के एग्रेसिव हिन्दुत्व की नीति ने उद्धव ठाकरे और शरद पवार को नाकों चने चबवाने पर मजबूर कर दिया। राज ठाकरे की नीतियों का असर है कि सावरकर के अपमान पर आंखें मूंदने वाली शिवसेना न केवल सीएए और एनआरसी का समर्थन करती दिखाई दे रही है, अपितु अयोध्या जाने के अपने पुराने निर्णय पर भी अमल करती दिखाई दे रही है।
राज ठाकरे के बढ़ते प्रभाव को दरकिनार करने के उद्देश्य से शरद पवार ने हाल ही में कहा,
“ऐसे लोगों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं। जो लोग राजनीति में सक्रिय हैं, उन्हे गंभीरता से लीजिये। ऐसे भाषण [राज ठाकरे के भाषण] केवल जनता का मनोरंजन करने के लिए हैं”।
परंतु शायद शरद काका यह भूल गए कि वह राज ठाकरे हैं, उद्धव ठाकरे नहीं। जो वे बोलते हैं, वो करके भी दिखाते हैं। शरद पवार के गढ़ समझे जाने वाले पुणे में मानों उन्हे चुनौती देते हुए एमएनएस के कार्यकर्ता पुलिस अफसरों सहित बांग्लादेशी घुसपैठियों को ढूंढने निकल पड़े, और उन्होंने उन इलाकों में जांच पड़ताल की, जहां बांग्लादेशी घुसपैठियों के रहने की ज़्यादा आशंका थी। उन्होंने कई लोगों को एक से अधिक वोटर आईडी के साथ पकड़ा।
इससे पहले एमएनएस ने सीएए और घुसपैठियों को बाहर खदेड़ने के पीएम नरेंद्र मोदी के नीतियों का जोरदार स्वागत किया। इसी परिप्रेक्ष्य में रायगढ़ जिले में एमएनएस ने पनवेल क्षेत्र में पोस्टर्स लगाते हुए चेतावनी दी,
‘बांग्लादेशियों, हमारा देश छोड़ दो वरना एमएनएस स्टाइल में निकाले जाओगे’।
सच कहें तो राज ठाकरे बालासाहेब ठाकरे के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। चाहे उनका वक्तव्य, या फिर हिन्दुत्व के विषय पर उनकी पकड़, राज ठाकरे मानों बालासाहेब के प्रतिबिंब हैं। वे जनता को उसी शैली में आकर्षित करते हैं, जैसे बाल ठाकरे करते थे। उधर, उद्धव ठाकरे तो मानो कांग्रेस और एनसीपी के सरकारी अर्दली बनकर रह गए हैं, जिनका काम दोनों पार्टियों द्वारा स्वीकृत निर्णयों पर हस्ताक्षर करना है। यदि राज ठाकरे ढंग से अपनी नीतियों को लागू करें, तो वे आराम से शिवसेना के वोटर बेस प्राप्त कर सकते हैं। उधर, भाजपा को भी एक भरोसेमंद साथी मिलेगा, जो सत्ता के लालच में शिवसेना की तरह उनका साथ नहीं छोड़ेगा।
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