इस बात में कोई दो राय नहीं कि देश की आजादी के बाद से सबसे अधिक समय तक दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश पर कॉन्ग्रेस पार्टी ने राज किया है। लेकिन आज आए दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम में देश की एक बड़ी पार्टी को लगातार दूसरी बार शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है।
एक तो हुई हार, लेकिन ऊपर से 70 सीटों में से 67 सीटों पर कॉन्ग्रेस प्रत्याशियों की जमानत जब्त होना इस बात की गवाही देता है कि, यह हार से भी बड़ी शर्मनाक हार तो है। साथ ही यह चुनावी परिणाम दर्शाते हैं कि, कॉन्ग्रेस पतन की ओर जा रही है। यही कारण है कि दिल्ली चुनाव परिणामों के बाद कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं ने अपनी ही पार्टी के नेताओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। दिल्ली कॉन्ग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेत्री और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बेटी शर्मिष्टा मुखर्जी ने में दिल्ली हार के लिए पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है।
दिल्ली में बीजेपी के सत्ता में न आने और अरविंद केजरीवाल के दिल्ली की सत्ता में एक बार फिर से वापसी करने पर कॉन्ग्रेस की खुशी इस बात का इशारा करती है कि, पार्टी दिल्ली पहले ही हार मानकर खुलकर न सही, लेकिन अंदर खाने बीजेपी को किसी भी तरह से दिल्ली की सत्ता में न आने देने के लिए केजरीवाल को जरूर समर्थन दिया होगा।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि देश की एक बड़ी पार्टी का चुनावी मैदान में बिना उतरे ही एक राज्य की छोटी सी पार्टी के सामने अपने सारे हथियार डाल देना। यह प्रदर्शित करता है कि राहुल गाँधी किसी भी रूप में अपने आपको मोदी के सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं रखते। इतना ही नहीं राहुल गाँधी की नर्वसता उस दिन साफ़ देखी गई कि, जब राहुल गाँधी दिल्ली की इकलौती अपनी जनसभा में बोल बैठे, “6 महीने बाद मोदी को देश के युवा डंडा मारेंगे।” दिल्ली में कॉन्ग्रेस की इकलौती जनसभा में दिया राहुल गाँधी का यह बयान पार्टी के गले की फाँस बन गया, जिसे लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी के कई बड़े नेताओं को सफाई तक देनी पड़ी।
इसके बाद तो समझो कॉन्ग्रेस चुनाव प्रचार से गायब ही हो गई, लेकिन अच्छी बात यह रही कि कॉन्ग्रेस के नीरस चुनाव प्रचार का दिल्ली का जनता ने भी उसी तरह से सम्मान किया, जिस तरह से राहुल ने अपने भाषणों में देश के प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी का सम्मान किया था। हालाँकि, राहुल गाँधी के साथ पार्टी के पदाधिकारी पिछले साल महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बनी अपनी सरकार से जागी उम्मीदें भी अब समाप्त हो चुकी है।
दिल्ली हार के बाद पार्टी नेतृत्व को सदमा लगना लाज़िमी है, क्योंकि दिल्ली में शीला युग की शुरूआत 1998 से मंहगाई के बीच हुए दिल्ली चुनावों में विजय हासिल करने के साथ हुई थी। तब कॉन्ग्रेस पार्टी शीला दीक्षित के नेतृत्व में 70 में से 54 सीटों पर जीतकर आई और सरकार बनाई और वहीं सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली बीजेपी पार्टी को मात्र 15 सीटें लेकर करारी हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद 2003 में हुए विधानसभा चुनावों में एक बार फिर कॉन्ग्रेस को 70 में से 47 सीटें मिलीं, जबकि बीजेपी कुछ बढ़त के साथ 20 पर ही सिमट गई।
आश्चर्य तो तब हो गया कि जब 2008 में हुए विधानसभा चुनावों में शीला ने 43 सीटों के साथ दिल्ली में हैट्रिक लगा दी। कहा जाता है कि कॉन्ग्रेस पार्टी को दिल्ली में लगातार तीसरी बार मिली जीत, शीला दीक्षित की नेतृत्व क्षमता और दिल्ली में कराए विकास कार्यों का ही परिणाम था, लेकिन इसे पार्टी ने अपने हाथों से मिटा दिया।
इसके साथ ही देश में चल रही मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार और घोटाले एक के बाद एक उजागर होने लगे और देश में तत्कालीन केन्द्र सरकार के ख़िलाफ लोगों में उबाल पैदा होने लगा। इस आक्रोश को हवा तब मिली कि जब अन्ना ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ और लोकपाल की माँग को लेकर दिल्ली में आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन का असर लोगों पर कुछ इस तरह से हुआ कि दशकों से केन्द्र की सत्ता में काबिज कॉन्ग्रेस सरकार को एक झटके में उखाड़ के फेंका और विकल्प के रूप में जनता ने नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया।
इसी बीच अन्ना के आंदोलन से एक ऐसा चेहरा लोगों के सामने आया जिसने भ्रष्टाचार की लड़ाई अन्ना के साथ लड़ी और इसी के साथ अन्ना के आंदोलन में अन्ना के सहतयोगी रहे अरविंद केजरीवाल ने अपनी नई पार्टी बनाकर दिल्ली विधासभा का चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया और पहली बार में ही यानि कि, 2013 में हुए विधानसभा चुनावों में केजरीवाल ने कॉन्ग्रेस से मिलकर सरकार तो बना ली, लेकिन आप का कॉन्ग्रेस से गठबंधन अधिक समय नहीं चला और आप ने अपने हाथ खींचते हुए ऐलान किया कि दिल्ली में काम करने के लिए जनता का पूर्ण समर्थन चाहिए।
2015 में फिर से हुए दिल्ली चुनावों में कुछ ऐसा ही परिणाम आया जैसा कि केजरीवाल को अपेक्षा थी। केजरीवाल ने 70 में से 67 सीटों पर अपनी जीत हासिल कर सरकार बना ली। कुछ ऐसा ही हुआ आज आए परिणाम में कि, आप सरकार ने सभी को पछाड़ते हुए दिल्ली में दोबारा पूर्ण बहुमत से अधिक सीटें हासिल की है। वहीं बीजेपी ने जरूर पिछले वर्ष की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करते हुए सीटों में बढ़ोत्तरी की है।
यह परिणाम कॉन्ग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक हैं, क्यों दिल्ली में कॉन्ग्रेस पार्टी की 0 सीटें आना तो उतना शर्मनाक न भी हो, लेकिन 70 में से 67 सीटों पर पार्टी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो जाना ये ज़्यादा शर्मनाक है। इसलिए पार्टी को पतन की ओर जाते देख पार्टी के नेताओं को सदमा लगना लाज़िमी है।
एक तो हुई हार, लेकिन ऊपर से 70 सीटों में से 67 सीटों पर कॉन्ग्रेस प्रत्याशियों की जमानत जब्त होना इस बात की गवाही देता है कि, यह हार से भी बड़ी शर्मनाक हार तो है। साथ ही यह चुनावी परिणाम दर्शाते हैं कि, कॉन्ग्रेस पतन की ओर जा रही है। यही कारण है कि दिल्ली चुनाव परिणामों के बाद कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं ने अपनी ही पार्टी के नेताओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। दिल्ली कॉन्ग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेत्री और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बेटी शर्मिष्टा मुखर्जी ने में दिल्ली हार के लिए पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है।
दिल्ली में बीजेपी के सत्ता में न आने और अरविंद केजरीवाल के दिल्ली की सत्ता में एक बार फिर से वापसी करने पर कॉन्ग्रेस की खुशी इस बात का इशारा करती है कि, पार्टी दिल्ली पहले ही हार मानकर खुलकर न सही, लेकिन अंदर खाने बीजेपी को किसी भी तरह से दिल्ली की सत्ता में न आने देने के लिए केजरीवाल को जरूर समर्थन दिया होगा।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि देश की एक बड़ी पार्टी का चुनावी मैदान में बिना उतरे ही एक राज्य की छोटी सी पार्टी के सामने अपने सारे हथियार डाल देना। यह प्रदर्शित करता है कि राहुल गाँधी किसी भी रूप में अपने आपको मोदी के सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं रखते। इतना ही नहीं राहुल गाँधी की नर्वसता उस दिन साफ़ देखी गई कि, जब राहुल गाँधी दिल्ली की इकलौती अपनी जनसभा में बोल बैठे, “6 महीने बाद मोदी को देश के युवा डंडा मारेंगे।” दिल्ली में कॉन्ग्रेस की इकलौती जनसभा में दिया राहुल गाँधी का यह बयान पार्टी के गले की फाँस बन गया, जिसे लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी के कई बड़े नेताओं को सफाई तक देनी पड़ी।
इसके बाद तो समझो कॉन्ग्रेस चुनाव प्रचार से गायब ही हो गई, लेकिन अच्छी बात यह रही कि कॉन्ग्रेस के नीरस चुनाव प्रचार का दिल्ली का जनता ने भी उसी तरह से सम्मान किया, जिस तरह से राहुल ने अपने भाषणों में देश के प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी का सम्मान किया था। हालाँकि, राहुल गाँधी के साथ पार्टी के पदाधिकारी पिछले साल महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बनी अपनी सरकार से जागी उम्मीदें भी अब समाप्त हो चुकी है।
दिल्ली हार के बाद पार्टी नेतृत्व को सदमा लगना लाज़िमी है, क्योंकि दिल्ली में शीला युग की शुरूआत 1998 से मंहगाई के बीच हुए दिल्ली चुनावों में विजय हासिल करने के साथ हुई थी। तब कॉन्ग्रेस पार्टी शीला दीक्षित के नेतृत्व में 70 में से 54 सीटों पर जीतकर आई और सरकार बनाई और वहीं सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली बीजेपी पार्टी को मात्र 15 सीटें लेकर करारी हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद 2003 में हुए विधानसभा चुनावों में एक बार फिर कॉन्ग्रेस को 70 में से 47 सीटें मिलीं, जबकि बीजेपी कुछ बढ़त के साथ 20 पर ही सिमट गई।
आश्चर्य तो तब हो गया कि जब 2008 में हुए विधानसभा चुनावों में शीला ने 43 सीटों के साथ दिल्ली में हैट्रिक लगा दी। कहा जाता है कि कॉन्ग्रेस पार्टी को दिल्ली में लगातार तीसरी बार मिली जीत, शीला दीक्षित की नेतृत्व क्षमता और दिल्ली में कराए विकास कार्यों का ही परिणाम था, लेकिन इसे पार्टी ने अपने हाथों से मिटा दिया।
इसके साथ ही देश में चल रही मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार और घोटाले एक के बाद एक उजागर होने लगे और देश में तत्कालीन केन्द्र सरकार के ख़िलाफ लोगों में उबाल पैदा होने लगा। इस आक्रोश को हवा तब मिली कि जब अन्ना ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ और लोकपाल की माँग को लेकर दिल्ली में आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन का असर लोगों पर कुछ इस तरह से हुआ कि दशकों से केन्द्र की सत्ता में काबिज कॉन्ग्रेस सरकार को एक झटके में उखाड़ के फेंका और विकल्प के रूप में जनता ने नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया।
इसी बीच अन्ना के आंदोलन से एक ऐसा चेहरा लोगों के सामने आया जिसने भ्रष्टाचार की लड़ाई अन्ना के साथ लड़ी और इसी के साथ अन्ना के आंदोलन में अन्ना के सहतयोगी रहे अरविंद केजरीवाल ने अपनी नई पार्टी बनाकर दिल्ली विधासभा का चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया और पहली बार में ही यानि कि, 2013 में हुए विधानसभा चुनावों में केजरीवाल ने कॉन्ग्रेस से मिलकर सरकार तो बना ली, लेकिन आप का कॉन्ग्रेस से गठबंधन अधिक समय नहीं चला और आप ने अपने हाथ खींचते हुए ऐलान किया कि दिल्ली में काम करने के लिए जनता का पूर्ण समर्थन चाहिए।
2015 में फिर से हुए दिल्ली चुनावों में कुछ ऐसा ही परिणाम आया जैसा कि केजरीवाल को अपेक्षा थी। केजरीवाल ने 70 में से 67 सीटों पर अपनी जीत हासिल कर सरकार बना ली। कुछ ऐसा ही हुआ आज आए परिणाम में कि, आप सरकार ने सभी को पछाड़ते हुए दिल्ली में दोबारा पूर्ण बहुमत से अधिक सीटें हासिल की है। वहीं बीजेपी ने जरूर पिछले वर्ष की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करते हुए सीटों में बढ़ोत्तरी की है।
यह परिणाम कॉन्ग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक हैं, क्यों दिल्ली में कॉन्ग्रेस पार्टी की 0 सीटें आना तो उतना शर्मनाक न भी हो, लेकिन 70 में से 67 सीटों पर पार्टी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो जाना ये ज़्यादा शर्मनाक है। इसलिए पार्टी को पतन की ओर जाते देख पार्टी के नेताओं को सदमा लगना लाज़िमी है।
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